अपना घर

लघुकथा - 

                       * अपना घर *

     " मैं कुछ नहीं जानती । इस घर में अब या तो मैं रहूंगी या फिर तुम्हारी मां ।", नीलिमा की आवाज कमरे में गूंज रही थी ।

    " धीरे बोलो , मां सुन लेगी तो उनको बुरा लगेगा ।" रवि धीमे स्वर में बोला , " मैं सोचता हूं कुछ इस बारे में ।"

      " इसमें सोचना क्या है ? कल मुझे फाइनल डिसीजन चाहिए , बहस नहीं । तुम्हारी मां दिन भर या तो खांसती रहती है , या इधर-उधर थूकती रहती है । उनके चलते मैं अपनी सहेलियों को भी घर पर नहीं बुला पाती ।"

    पास वाले कमरें में सो रही मां के कानो तक धीमे-धीमे यह आवाजें पहुंच रही थी ।

   सुबह , रवि मां के कमरे में आकर बोला , " चलो मां , तुम्हें चारो धाम की यात्रा पर ले चलता हूं । बहुत दिनों से इच्छा थी तुम्हारी ।" 

   बेटे को आशीष देती मां , कार में बैठ कर चल पड़ी । 

   कुछ देर बाद , कार एक इमारत के गेट के पास रुकी । जिस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था - " अपना घर वृद्धाश्रम ।" 

             --- बलजीत गढ़वाल 'भारती
२६/०८/२०२२

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8 Comments

Bahut khub

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shweta soni

27-Aug-2022 07:43 PM

Nice

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Shnaya

27-Aug-2022 03:05 PM

ब बहुत सुंदर

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